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जंग हो : सेठों के मुनाफे के लिए नहीं, जनता के बेहतर स्वास्थ्य के लिए 

ऐसे देश में युद्ध के नाम पर उन्माद पैदा करके युवाओं से यह कहलाना कि स्वास्थ्य नहीं युद्ध चाहिये क्या अपराध नहीं है?

फोटो - गूगल

पुलवामा घटना के बाद देश में पैदा हुईं उन्माद की लहरों के बीच की असली समस्याओं पर विचार विमर्श करने और उन्हें सुलझाने के प्रयास जारी हैं। ये प्रयास ही इस देश को जिंदा रखेंगे। जन स्वास्थ्य अभियान एक ऐसा ही मंच है, जिसमें कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक के सामाजिक कार्यकर्ता अपने अपने राज्य की जनता की सेहत के बदतर हालातों पर न केवल चर्चा करते हैं बल्कि सरकार की नाकामियों को उजागर भी करते हैं। उनमें सुधार की तजवीजें भी सुझाते हैं। दिल्ली में इस मंच की एक बैठक में कश्मीर के प्रतिनिधि ने जब अपने यहां के अस्पतालों और स्वास्थ्य की समस्याओं के बारे में बताया तो ऐसा नहीं लगा कि ये अस्पताल डबरा या तमिलनाडु के गांव के अस्पतालों से अलग हैं। जब महाराष्ट्र के किसानों की स्वास्थ्य संबंधी तकलीफों को वहां के स्वास्थ्य अभियान से जुडे कार्यकर्ता उठाते हैं तो आंदोलन मजबूत होते हैं और जनता में आत्मविश्वास पैदा होता है।

ये कार्यकर्ता वे हैं जो तमाम सरकारी विज्ञापनों के शोर से दूर सरकार की स्वास्थ्य बीमा योजनाओं की असलियतों को जनता तक पहुंचाने और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को जनता का अधिकार बनाने की कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं और कई जगह अपनी जान भी दे रहे हैं। 

महाराष्ट्र के लातूर जिले में एक मजदूर महिला ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उसके नवजात शिशु को बचाने के लिये रोज लगभग दो हजार रूपये की दवाइयों की जरूरत थी और उस बच्चे का पिता पत्थर तोडऩे वाला मजदूर था। जिस देश में प्रधानमंत्री बड़े बड़े बोलों के साथ निजी कंपनियों को करोड़ो रूपये जनता के स्वास्थ्य के नाम पर लुटाते हो वहां यह मौत डरावनी सचाई है। सामान्य प्राथमिक चिकित्सा केंद्र को व्यवस्थित करने की जिसमें कोई राजनैतिक इच्छा शक्ति न हो ऐसे प्रधानमंत्री और उसकी सरकार को बने रहने का कोई हक है क्या? 

उस गरीब महिला जैसे कई गरीबों के खून का इल्जाम जिस के सर लगा हो वह प्रधानमंत्री और उसकी सरकार जनता का ध्यान भटकाने के लिए पुलवामा जैसी घटनाओं का उपयोग नहीं करती हो इसकी क्या गारंटी है। आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हो या आशा कार्यकर्ता, किसान हो या किसी कारखाने का मजदूर, आम जनता के स्वास्थ्य के आंदोलन को आर्थिक मांगों के साथ जोडऩा होगा।
याद आता है रवीश कुमार का एक प्राइम टाइम कार्यक्रम जिसमें उन्होंने गुडग़ांव में रहने वाले मजदूरों की दर्दनाक स्थिति को बयान किया था। दड़बे जैसे एक कमरे के मकानों मेें उनके परिवारों की हालत को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत गांवों और शहरों की बस्तियों में बने शौचालयों में न तो दरवाजे हैं, ना पानी है और न ही है निकासी की व्यवस्था।

ऐसे देश में युद्ध के नाम पर उन्माद पैदा करके युवाओं से यह कहलाना कि स्वास्थ्य नहीं युद्ध चाहिये क्या अपराध नहीं है? इस उन्माद के बीच महाराष्ट्र के किसानों ने अपनी तकलीफों को दूर करने के लिए जिस तरह से दुगुनी और चौगुनी ताकत में वापस सडक़ों पर निकल कर सरकार को झुकने के लिए मजबूर किया उसने  जनता में एक बार फिर से संघर्षों के प्रति विश्वास और उन्मादी घोषणाओं से दूरी बनाने में मदद की है। 

ये उन्मादी किस दिशा में जनता को ले जा रहे हैं यह सतना की उस घृणित घटना से भी साबित होता है, जिसमें दो मासूमों की जान बजरंग दल के उस कार्यकर्ता ने बेदर्दी से ली जिसने सडक़ों पर देश के मुस्लिमों के खिलाफ असभ्य नारे लगाये होंगे। भाजपा से उसका क्या रिश्ता था यह इससे भी साबित होता है कि उन मासूमों को कैद करके वह शहर की सडक़ों पर जिस जीप में घूमता रहा उस पर प्रधानमंत्री की फोटो के साथ भाजपा का झंडा लगा हुआ था। सवाल झण्डा लगे होने का कम पुलिस द्वारा उस झंडे को देख कर जीप को न रोकने का ज्यादा है। 

ऐसी ही असफलताए हैं जिनसे बचने के लिए युद्दोन्माद का जिन्न जगाया जा रहा है। इस काम में मरना या तो जनता को है या सीआरपीएफ और सेना की वर्दी पहने उसके उन बेटों को जिनकी पेंशन का अधिकार भी हुक्मरान छीन चुके हैं।

जंग की दुंदुभी बजाने में सीमा के दोनों तरफ की सरकारों की रूचि है। उनके तो दोनों हाथों में लड्डू है। क्योंकि युद्ध होने का मतलब उनके चहेते कारपोरेटों के मुनाफे का और बढ़ जाना है और बारूद की धुंध में असली मुद्दों का गुम हो जाना है ।


 


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संध्या शैली

लेखिका अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति मध्यप्रदेश की उपाध्यक्ष है.

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