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अनूपपुर के अंदेशे  

इस खरपतवार का इलाज वही है जो 1 अक्टूबर को अनूपपुर की सडक़ों पर दिखा। असली अवाम को मैदान मे उतरना होगा, मोर्चा खोलना होगा और तब तक लडऩा होगा जब तक कि  अपने हक़ बचा नहीं लिए जाते, अपने अधिकार हासिल नहीं कर लिए जाते।  

19 सितंबर को अनूपपुर मे वन विभाग के एक भ्रष्ट अधिकारी द्वारा की गई साजिशी फिल्मी कार्यवाही का जवाब अनूपपुर की जनवादी आंदोलन 1 अक्टूबर के विरोध प्रदर्शन और सभा के जरिये दे चुका है। इसी विरोध सभा मे इस सिलसिले को तब तक जारी रखने का संकल्प भी दोहराया गया है जब तक कि अपराधी अफसरों का गिरोह दंडित नहीं कर दिया जाता। मगर यह न तो सिर्फ एक अधिकारी का किया धतकरम है और ना ही सिर्फ अनूपपुर तक सीमित घटनाक्रम; यह नौकरशाही के उत्तरोत्तर बेलगाम होने और अपने दायित्वों पर ध्यान देने और कर्तव्यों को पूरा करने की बजाय गिरोहबद्ध होकर माफिया की तरह आचरण करने की प्रवृत्ति है जो हाल के दौर मे खूब तेजी से फूली फली है। सवाल उठाने वालों को डराने, असहमति जताने वालों को फँसाने और घोटाला उजागर करने वाले व्हिसल ब्लोअर को - अगर वह दमदार है तो अपना शरीके जुर्म बनाने और यदि कमजोर है तो उसे निबटाने की स्क्रिप्ट पर काम शुरू हो चुका  है। 

अनूपपुर मे यही तो हुआ। एक राजनीतिक दल की ओर से उसके जिला सचिव होने के नाते रजन कुमार राठौर ने आदिवासियों और ग्रामीणो के साथ वन विभाग के अमले की लूट से जुड़े ठोस मसले उठाये। पहले इन्हें दबाने और दाखिल दफतर कर देने की कोशिश की गई - जब बार बार उन्हें उठाना जारी रखा गया तो साजिशों का सिलसिला शुरू हो गया। झूठे मुकद्दमे, फर्जी जब्तियाँ और आखिर मे 19 तारीख का फिल्मी ड्रामा। यह मैकल पहाड़ की किसी घाटी मे बसे छोटे से गाँव के किसी अकेले आदिवासी के साथ नहीं घट रहा था। एक राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के नेतृत्व के साथ हो रहा था। जाहिर है इसकी जानकारी कलेक्टर, कमिश्नर से लेकर मध्यप्रदेश की आला नौकरशाही को थी। इसे रोकने और कानून का राज सुनिश्चित करने के लिए उन्हें जो करना चाहिए था वह नहीं किया गया। यह सिर्फ लापरवाही भर नहीं है। यह नीचे से ऊपर तक पूरे प्रशासनिक तंत्र के सड़ जाने और अमले के भ्रष्टाचार मे लिथड़ जाने का उदाहरण है। कार्यपालिका के सारे जीवजंतुओं का बेईमानी और अवैधानिकता के हमाम में नंगे होकर डुबकी लगाने का साक्षात प्रमाण है । इसके विरुद्ध 1 अक्टूबर को अनूपपुर के जिला मुख्यालय में हुए विरोध प्रदर्शन ने जो मुद्दे उठाये हैं उनकी सूची एक तरह से मध्यप्रदेश की नौकरशाही की चौतरफा विफलता की चार्जशीट है। पहाड़ पर आदिवासी और गरीब ग्रामीण परिवार बीमारियों से घिरे हैं, स्वास्थ्य तंत्र ठप्प है, राशन दुकाने बंद पड़ी हैं। मनरेगा का कोई नामनिशान नहीं है। सरकार नाम की चीज दिखती ही नहीं है। दिखते हैं कुछ ठेकेदार, टटपुंजिये नेता और लिपेपुते अफसर, विधायकों सांसदों के साथ मिलकर सारी योंजनाओ का गिद्दभोज करते हुए।  यह चौकड़ी लोकतंत्र और संवैधानिक राज पर उगी उदारीकरण की वह खरपतवार है जो धीरे धीरे वल्लभ भवन के मंत्रालय से लेकर नगर पालिकाओं और पंचायतों तक को अपनी विकरालता से ढाँप रही है। एक तरफ वंचित समाज और दूसरी तरफ अपराधी गिरोह तैयार कर रही है।

यह सिर्फ नौकरशाहों और उनकी पालित-पोषित जुंडली तक सीमित मामला भी नहीं है। नव उदारीकरण एक राजनीतिक धतकरम है - नवउदारीकरण की एक राजनीति है। पूंजी - इन दिनों कारपोरेट पूंजी-ने पूंजीवादी राजनीति को अपनी तिजोरी की चाबी और चौकीदार मे बदल कर रख दिया है।  पहले यह सब कुछ दबे छुपे होता था अब खुले खजाने हो रहा है। पूंजी अपनी ताकत से राजनीति चला रही है तो राजनीति अपनी हैसियत का इस्तेमाल अपने इन वित्त पोषकों के लिए आकाश-पाताल एक कर रही है । इसका भी एक नमूना इसी अनूपपुर मे मिला जब एक वरिष्ठ वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता और श्रमिक नेता जुगल किशोर राठौर को जिलाबदर करने का नोटिस थमा दिया गया। जिलाबदर, जिसे गुंडे, बदमाशों से जनता को महफूज रखने के लिए काम मे लाया जाता था - उसका इस्तेमाल अब राजनीतिक आंदोलनों को कुचलने और प्रतिरोध को खामोश करने के लिए किया जा रहा है। जुगल राठौर पिछले कुछ वर्षों से एक पावर इंडस्ट्री के खिलाफ मोर्चा खोले हुये हैं। तमाम अनियमितताओं के ऊपर खड़ी हुयी इस मोजरबेयर कंपनी ने जमीन लेते समय किसानों से जो लिखित अनुबंध किए थे वे पूरे नहीं हुये। इसमे काम करने वाले ठेका मजदूरों की मजदूरी के लाखों रुपए लेकर ठेकेदार भाग गए। जो बचे हैं उन्हे सरकारी दर या कानूनो का लाभ नहीं मिलता। कायदे से यह काम खुद सरकार और प्रशासन को करने चाहिए थे। मगर उन्होने नहीं किया। अब यह सब किया जाये इसकी मांग को लेकर खुद मजदूर आंदोलन कर रहे हैं तो सरकार इस आंदोलन के अग्रणी जुगल राठौर का जिलाबदर करने की हड़बड़ी मे है। मगर क्या यह सब प्रशासन के जिले स्तर के किसी अधिकारी भर के बूते का काम है ? शायद नहीं। जन चर्चा है कि यह पावर इंडस्ट्री बहुत पावरफुल है क्योंकि खुद मुख्यमंत्री इसके मालिकों मे से एक हैं। हालांकि शिवराज सिंह के राज मे भी यह इतने ही मजे मे थी। नवउदारीकरण ने राजनीति के भेद को समाप्त करके शासक वर्ग को पूरी तरह एकजुट कर दिया है।

इस खरपतवार का इलाज वही है जो 1 अक्टूबर को अनूपपुर की सडक़ों पर दिखा। असली अवाम को मैदान मे उतरना होगा, मोर्चा खोलना होगा और तब तक लडऩा होगा जब तक कि  अपने हक़ बचा नहीं लिए जाते, अपने अधिकार हासिल नहीं कर लिए जाते।  

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