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बोलती, आवाज़ उठाती, जूझती लड़कियाँ

चेन्नई, हैदराबाद सेंट्रल विश्वविद्यालय, जे एन यू - पिछले तीन सालों की सुखिर्यों और चैनलों पर विचार-विमर्श बनाम गाली-गलौच पर छाये हुए थे। इन तमाम कैम्पसों पर चलने वाले धरने, प्रदर्शन, अभियान और आन्दोलन के मुद्दे बड़े राष्ट्रीय मुद्दों से सम्बंधित थे-मृत्यु दंड, जातीय उत्पीडन, शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप-बोलने-पढऩे-लिखने-विरोध करने की स्वतंत्रताओं पर रोक, राष्ट्रवाद, राष्ट्रद्रोह। इनके नेता भी अधिकतर नौजवान लडक़े थे, लेकिन बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में एक बिलकुल अलग तरह का विस्फोट देखने को मिला।

सुभाषिणी सहगल अली
चेन्नई, हैदराबाद सेंट्रल विश्वविद्यालय, जे एन यू - पिछले तीन सालों की सुखिर्यों और चैनलों पर विचार-विमर्श बनाम गाली-गलौच पर छाये हुए थे।  इन तमाम कैम्पसों पर चलने वाले धरने, प्रदर्शन, अभियान और आन्दोलन के मुद्दे बड़े राष्ट्रीय मुद्दों से सम्बंधित थे-मृत्यु दंड, जातीय उत्पीडन, शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप-बोलने-पढऩे-लिखने-विरोध करने की स्वतंत्रताओं पर रोक, राष्ट्रवाद, राष्ट्रद्रोह। इनके नेता भी अधिकतर नौजवान लडक़े थे, लेकिन बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में एक बिलकुल अलग तरह का विस्फोट देखने को मिला।


एक बहुत बड़ा मुद्दा है जिसे निश्चित तौर पर राष्ट्रीय मुद्दा बनना चाहिए।  जिसकी चर्चा जहां भी शुरू की जाती है तो उस चर्चा को भी दबाने की तरह तरह की कोशिशें शुरू हो जाती हैं। ऐसी कोशिशें जो भौंडी भी होती हैं, तंज से भरी भी और फिर काफी सभी भाषा में तार्किक तरीके से मुद्दे को उड़ा देने वाली। यह वह मुद्दा है जो राष्ट्रीय शर्म का मुद्दा है और इसीलिए उसको छिपाये रखने का प्रयास हजारों सालों से चल रहा है। यह वह मुद्दा है कि जिसपर अगर खुलकर बहस ही नहीं बल्कि फैसला भी हो जाए कि इस मुद्दे को जड़ के उखाडक़र उससे हमेशा के लिए निजात पाने की आवश्यकता है तो फिर एक ऐसा भूकंप आ सकता है जो बहुत कुछ ढहा देने का काम कर देगा।  परम्पराएं, वर्णव्यवस्था, संस्कार, आर्थिक उत्पीडऩ, निजी संपत्ति की बुनियाद, इन सबको इस भूकंप से खतरा है और इसीलिए इस मुद्दे को दबाने की इतनी जबरदस्त कोशिश समाज के हर हिस्से में चल रही है।  यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय भी शायद उस भूकंप की संभावना से काफी भयभीत है।


और इसी मुद्दे पर पड़े हजार पर्दों को चीर कर उसके भयानक, बेहूदे और लीचड़ चेहरे का पर्दाफाश करने का काम  दिल्ली, मुम्बई, कोलकता, बंगलुरु या और किसी बड़े शहर की लड़कियों नहीं बल्कि अधिकतर उत्तर प्रदेश और बिहार से आने वाले आम परिवारों की बहादुर बेटियों ने किया।  


महिलाएं देश की आधी आबादी है लेकिन उनके जीवन, उनकी खुशियाँ, उनके स्वास्थ और उनके विकास को प्रभावित करने वाले इस मुद्दे पर जिस बहस को समाज का बड़ा हिस्सा दबाना या अनदेखा कर देना चाहता है, उसे इन लड़कियों ने उस जगह पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से हटाना अब मुश्किल हो जाएगा।  यौन उत्पीडऩ के सवाल पर चिल्लाकर, धरना देकर, गालियां, खाकर और फिर पुलिस की लाठियों को खाकर उन्होंने इस मुद्दे की गूँज को भारत के सबसे अधिक पिछड़े और पुरुषप्रधानता की जकड़ में फंसे इलाके हर गाँव, कसबे और शहर तक पहुँच दिया है।


बीएसयू में कई साल पहले पढऩे वाली एक महिला लिखती है, ‘‘यहाँ पहरा है, पहरा है लडकियों पर, पहरा है उनके कपड़ों पर, पहरा है प्यार पर, पहरा है मर्जी पर’’ वह आगे लिखती हैं ‘‘यहाँ सामान्य बात है, कैम्पस के अन्दर घटिया कमेन्ट देना, छेड़छाड़ करना, यहां सामान्य बात है, लडक़ी के साथ कुछ भी हो तो उसे ही लेक्चर दे देना...।
एक सीनियर स्टूडेंट ने बताया कि अंदर वाले घटिया कमेंट करके रह जाते हैं लेकिन बाहर वाले छूना, घटिया गाली देना इत्यादि सब करते हैं।  इन सब के बाद प्रशासनिक और शैक्षणिक पदों के शीर्ष पर बैठी महिलाएं कभी ‘बेटी’ बोलकर तो कभी डराकर कहती हैं पढ़ाई पर ध्यान दो। ‘बेटा’ तुम लोग ठीक कपड़े पहना करो, मां- बाप ने इतनी दूर किसलिए भेजा।’’


तो पहले भी होता था, आज भी होता है। नई बात क्या है?  यह तो हमेशा से चला आ रहा है और महिलाओं को, लडकियों को अपनी इज्जत की रक्षा खुद ही करनी होगी।  इसके बारे में सवाल-जवाब उन्हीं से होगा।


लेकिन अबकी बार बीएसयू में ऐसा नहीं हुआ।  अबकी बार छात्राओं ने हाथ बढ़ाकर सत्ता और सत्ताधारियों की दुखती नस को पकड़ लिया। उन्होंने इस बात को बार बार कहा कि हमारी सुरक्षा आपकी जिम्मेदारी है। हमारा उत्पीडऩ करने वालों पर कार्यवाही करना आपकी जिम्मेदारी है।  हमें अपने साथ होने वाली बदसलूकी, यौन उत्पीडऩ, शारीरिक हिंसा और किसी तरह के शोषण के लिए जिम्मेदार ठहराना अब हमें बिलकुल ही मंजूर नहीं है।


यह कहकर लड़कियों ने एक दूसरे के प्रति अद्भुत एकता का परिचय देते हुए उस झूठ को दफना दिया कि औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं। उन्होंने नारे लगाए, न्याय की गोहार लगाईं।  जब उपकुलपति जो कैम्पस के मुखिया हैं, घर में जो पिता का दायित्व होता है, उसे कैम्पस पर निभाने के लिए उच्च पद पर बिठाए गए हैं, ने उनकी बात सुनने से इंकार किया तो वह बीएचयू के फाटक पर बैठ गयीं। उप कुलपति से बड़ा, देश का मुखिया आने वाले था, उसे अपनी बात सुनने के लिए वह उनसे मजबूर करना चाहती थी।  लेकिन उसने भी सुनने से इंकार कर दिया। अपना रास्ता बदल कर, अपने दायित्व के पालन से अपना इंकार जग-जाहिर कर दिया।


इसके बाद लड़कियों ने जो किया उसका महत्व समझने की जरूरत है। जब पिता का देहांत होता है तो बेटा या बेटे अपने सर के बाल घोट देते हैं।  यह केवल उनके शोक का प्रतीक नहीं बल्कि इस बात का ऐलान भी है कि पुराना मुखिया नहीं रहा लेकिन घर का नया मुखिया नियुक्त कर दिया गया है।


बीएचयू की छात्राओं ने भी यही किया।  जिस लडक़ी के साथ बदतमीजी हुई थी। जिसने अपनी बात उप कुलपति से कहने की कोशिश की थी। जिसकी बात को उन्होंने अनसुनी कर दी थी। जिसको फाटक के बाहर, धूप में, अपनी साथियों के साथ सडक़ पर बैठने के लिए मजबूर किया गया था, जिसने अपने साथी-सहयोगियों के साथ नारे लगाए और गालियां और लाठियां भी खायीं-उसने अपना सर घोट दिया।


उसके लिए पुराने मुखिया-उप कुलपति से लेकर प्रधान मंत्री तक-सब समाप्त हो चुके थे।  उनकी जगह नई शक्तियां, जिनमें, लम्बे अरसे के बाद, महिलाओं की शक्ति भी शामिल थी, लेने की तैयारी में थे, इस तैयारी का सार्वजनिक ऐलान कर रहे थे।
(अमर उजाला से साभार) 

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