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जीवन बचाने की छटपटाहट ने मिटाया मौत का डर

ईरान उबला पड़ा है । हजारों लोग सरकार और उसके धर्मगुरु मुखिया अयातुल्ला खोमैनी के खिलाफ सडकों पर हैं । अनेक मौतों और सुरक्षाबलों की छुट्टा गोलीबारी के बाद भी स्थिति काबू में नहीं आ पा रही ।

 

ईरान उबला पड़ा है ।  हजारों लोग सरकार और उसके धर्मगुरु मुखिया अयातुल्ला खोमैनी के खिलाफ सडकों पर हैं । अनेक मौतों और सुरक्षाबलों की छुट्टा गोलीबारी के बाद भी स्थिति काबू में नहीं आ पा रही ।


हुआ क्या ?
न्यूक्लिअर प्रोग्राम् को लेकर लगे प्रतिबन्ध ओबामा प्रशासन के समय हुये समझौते के बाद हट चुके थे । मुश्किलें कुछ आसान होनी चाहिए थी । जीडीपी भी अच्छी खासी है, कोई 12.5 प्रतिशत । इकॉनोमी के स्वास्थ्य के लिए जीडीपी को खुदा का पर्याय मानने वालों के हिसाब से तो बल्ले बल्ले होनी चाहिए थी । मगर यहां तो उल्टे बांस बरेली को लदे दिख रहे हैं । भू-राजनैतिक हिसाब से भी अवाम को उलझाये रखने के लिए हालात माकूल ही थे । बहाबी-सुन्नी और अमरीकी बन्दे सऊदी अरब के साथ पंगे के बहाने उन्माद और "शिया-राष्ट्रवाद" उभारना सहज था । फिर क्या हुआ कि जनता इतनी उत्तेजित हो गयी कि राजधानी तेहरान सहित 50 शहरों में पुलिस थानो और मिलिट्री ठिकानों तक पर टूट पडी है ।


ईरान का सन्देश
ईरानी अवाम का फौरी गुस्सा तनख्वाहें बढ़ाने और भ्रष्टाचार मिटाने की मांगों के इर्दगिर्द है । वे अण्डे जैसी रोजमर्रा की जरूरियात के महंगे होने से खफा हैं । उनकी नाराजगी अगले बजट में पेट्रोल की कीमतें बढ़ाये जाने के प्रस्ताव को लेकर भी हैं । गैर लाईसेंसी बचत कम्पनियों के फर्जीवाड़े और बैंकों की ब्याज दरों की कमी से अपनी बचत के खतरे में पड़ने से वे क्षुब्ध हैं । गरज ये कि जिंदगी की भौतिक आवश्यकताओं की कमी उन्हें खिजाये हुये हैं । जीवन बचाने की उनकी छटपटाहट ने मौत का डर मिटा दिया है ।
सारी जीडीपीयों की तरह ईरानी जीडीपी भी रोजगारछीन मृगमरीचिका निकली है । बेरोजगारी साढ़े बारह और युवाओं की बेरोजगारी करीब 29 फीसद तक पहुँच गयी है । जो नौकरियाँ हैं भी वे भी नवउदार साँचे में ढली सिंकुडी आमदनी और कटी-पिटी सेवाशर्तों वाली बची हैं ।
भारत की तरह ईरानी आबादी का भारी बहुमत भी युवाओं का हैं । इन युवाओं को राष्ट्रवाद की अफ़ीम और धर्मोन्माद की भाँग से कुछ वक़्त तक तो बहलाया जा सकता है, और यह बात सिर्फ ईरान के बारे में ही सच नहीं है ।


किस करवट बैठेगा ऊँट
यूं तो वैसे भी स्वतःस्फूर्त जनांदोलन ज्वालामुखी से निकले लावे की तरह होते हैं, जिसकी दिशायें पूर्वनिर्धारित नहीं होतीं । फिर ईरानी आक्रोश के इस विस्फोट का तो कोई नेता ही नहीं है । इसलिये इस मंथन से क्या निकलेगा इसके बारे में कोई भी पूर्वानुमान सिर्फ कयास ही होगा । खासतौर से ईरान में जहां - आज जो डोनाल्ड ट्रम्प इसे लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति का विस्फोट बताते हुये "करें गली में कत्ल बैठ चौराहे पर रोयें" अंदाज में ट्वीटिया रहे हैं उन्ही के पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों ने शाह ईरान के साथ मिलकर समूचे विपक्ष का नामोनिशान मिटा दिया था । कम्युनिस्टों का तो कत्लेआम ही करवा दिया था - वहां ऊँट किस करवट बैठेगा से ज्यादा महत्त्वपूर्ण ऊँट का खड़ा होना है। वैसे यूं भी आंदोलन नतीजों की गारंटी के मोहताज नहीं होते । नतीजे पहले से तय करके भी आंदोलन नहीं होते, आंदोलनों की कोख से नतीजे उभरते हैं । ईरान में भी यही होगा ।


ट्रम्प के ट्वीट - शैतान के मुंह से कुरान की आयत
ईरानी जनअसंतोष को लेकर अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का चहकना (ट्वीट्स) अपने फौरी और अंतिम दोनों निष्कर्ष में आंदोलनकारी जनता के खिलाफ ही हैं । हर धूर्त राजनीतिज्ञ की तरह ईरान के राष्ट्रपति ने भी इस मौके को लपक लिया है और अपने जैसे बाकी डेढ़ चतुरों की तरह इसके आधार पर देशभक्त बनाम देशद्रोह का स्वांग बनाने की कोशिश शुरू कर दी।
उम्मीद है ईरानी जनता इस अमरीकी "ह्रदय परिवर्तन" और इस उमड़ते घुमड़ते प्यार की असलियत समझेगी । अपनी फौरी तकलीफों की गुनहगार आर्थिकनीति और सीरिया और फिलिस्तीन और ईराक़ से जुडी ईरान की विदेशनीति को अलग अलग करके आंकेगी । लोकगाथाओं के महादैत्यों की तरह आधुनिक दुनिया के सुपर दानव अमरीका की जान भी मिडिल ईस्ट के भूगोल पर वर्चस्व बनाने के लिए पिंजरे में बाँधकर रखी गयी चिड़िया में है । जिस दिन ये चिड़ियायें एक सुर में चहचहायेंगी और अपनी चोंच से पिंजरे को ठकठकायेंगी उस दिन वे खुद तो आजाद होंगी ही, दुनिया को भी इस श्राप से मुक्ति मिलेगी ।


सबक सबके लिये
ईरान का सबक सिर्फ अयातुल्ला खोमेनी या राष्ट्रपति हसन रुहानी भर के लिये नहीं है , अलग अलग देशों में अलग अलग नाम धरे बैठे उनके हमजाद हुक्मरानों के लिए भी है । और वो ये है कि भावनात्मक और कूपमण्डूक धार्मिक अलावों से फ़ैलाये और उगाये गए कोहरोँ और कुहासों से ज्यादा गाढ़ी होती है भूख । यह भूख जब जिस्म पर तारी होती है तो वह दिमाग को भी झकझोरती है ।
और खैरियत की बात यह है कि शासक कुछ भी कर गुजरें, इंसान को उसके दिमाग के इस्तेमाल से रोक नहीं सकते ।


About Author

Badal Saroj

लेखक लोकजतन के संपादक एवं अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.

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