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लोकजतन सम्मान 2019 : डॉ.राम विद्रोही - पत्रकारिता का एक अनथक सफर 

1857 के स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर देश के आजाद होने तक की लड़ाई में ग्वालियर-चंबल संभाग के योगदान के इतिहास के संदर्भ में उन्होंने काफी महत्वपूर्ण काम किया है। डॉ. लोहिया का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव है।

समझ में नहीं आ रहा है कि अपनी बात को कहां से शुरू करूं? डॉ. राम विद्रोही जिनकी पत्रकारिता और जीवन यात्रा को देखते-देखते तरुण पीढ़ी नौजवान और नौजवान पीढ़ी पूरी तरह से प्रौढ़ हो चुकी है, का व्यक्तित्व और कृतित्व ही कुछ ऐसा है। दरअसल, उन्हें समझना उतना आसान नहीं है, जितना बाहर से लगता है। लेकिन इसका आशय यह कदापि नहीं कि उनका  व्यक्तित्व आवरणमय व्यक्तित्व है। वे जितने सहज दिखते हैं, सचमुच उतने सहज हैं भी। लेकिन इस सबके बावजूद उनकी अपनी जीवनशैली है, जो उनके व्यक्तित्व को बेजोड़ बनाती है। सहजता के साथ जटिलताएं भी उनके जीवन का हिस्सा हैं। ये जटिलताएं जीवन के संघर्षों से जुड़ी हैं। यह बात दीगर है कि उन्होंने इन जटिलताओं को कुछ इस तरह से ढाला है कि वे दूसरों को आसानी से न दिखाई देती हैं और न ही समझ में आती हैं। यही वजह है कि विद्रोही जी हर हाल में हंसते-मुस्कराते, बिना किसी बनावट और बुनावट के अपनी ही मस्ती में  नजर आते हैं।

 जीवन पर हावी होते जा रहे बाजार और बाजार के दबाव में उद्योग में तब्दील हो चुकी अखबारी दुनिया में सच को सच लिखना तो छोडिए, जो जैसा है, उसको वैसा लिखना भी एक मुश्किल और जोखिम भरा काम है। इसके चलते अखबारों का चाल, चेहरा और चरित्र तेजी से बदलता जा रहा है। खबरें अब लिखीं नहीं, बुनी जाती हैं। उनका आगा-पीछा, नफा और नुकसान देखा और समझा जाता है। ऐसे तमाम -तमाम बदलावों के इस दौर में कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपनी पत्रकारिता के धर्म और मर्म को बचाये रखा है। यकीनन, डॉ. राम विद्रोही भी उनमें से एक हैं। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है।

 प्रसंगवश, मुझे कुछ पंक्तियां याद आती हैं। किसी कवि ने कहा है- मैं। सशरीर विज्ञापन लेकर।  बाजार में बिकने निकला हूं।  बाजार की नियति है बिक्री। तय है मेरा भी। मोल भाव होगा। सच है, बाजार कोई भी हो, उसमें जो भी है, उसका मोलभाव न हो, यह संभव नहीं हो सकता। लेकिन यहां यह सवाल उतना महत्वपूर्ण नहीं है। सवाल यह है कि बाजार में आप अगर बिके हैं तो क्या बाजार की शर्तों पर बिके हैं या फिर अपनी शर्तों पर। पिछले चार दशकों के संपर्क में इस संदर्भ में  विद्रोही जी को मैं जितना समझ पाया हूं, उससे मुझे लगता है कि वे अपनी शर्तों पर जीने वाले व्यक्ति हैं। जरूरत के लिए उन्होंने शहर भी बदले और संस्थान भी लेकिन नहीं बदली तो वह पहचान, जिसके लिए वे जाने जाते हैं।

 9 जुलाई 1943 को गुना में जन्में, ग्वालियर से पत्रकारिता शुरू की, राजस्थान गए, जयपुर और जोधपुर रहे फिर लौटकर ग्वालियर आ गए। आरंभिक दौर में दैनिक भास्कर में रहे लेकिन सर्वाधिक सेवाएं आचरण के संपादक के तौर पर रहीं। 1984 में वे वहां संपादक बने और करीब 26 साल तक लगातार इस दायित्व का निर्वाह करते रहे। संपादक पद के दायित्व से मुक्त होने के बाद भी उनका और दैनिक आचरण का साथ बना रहा जो ब-मुश्किल महीना भर पहले ही छूटा है। इतनी लंबी यात्रा में उन्होंने पत्रकारिता के विविध आयामों को जिया है। राजनीति, कला, साहित्य, संस्कृति और इतिहास के तमाम अनछुए पहलुओं को अपनी लेखनी  में उतारा है। 

1857 के स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर देश के आजाद होने तक की लड़ाई में ग्वालियर-चंबल संभाग के योगदान के इतिहास के संदर्भ में उन्होंने काफी महत्वपूर्ण काम किया है। डॉ. लोहिया का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव है। जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में सक्रिय रहने के कारण उन्होंने 14 बार जेल यात्रा भी की। अब तक आधा दर्जन से ज्यादा किताबें लिख चुके हैं। विचारों से समाज में बदलाव की अलख जगाने निकले डॉ. विद्रोही ने पत्रकारिता की एक पूरी पीढ़ी को मार्गदर्शन दिया है। बिना किसी  दुराव-छिपाव के नई पीढ़ी  के पत्रकारों को  पत्रकारिता के संस्कारों का शिक्षण और प्रशिक्षण दिया है। उनके व्यक्तित्व का एक खास पहलू यह भी वे कि वे इस उम्र में  भी न वे थके हैं और न ही उनके भीतर का पत्रकार।

रवीन्द्र झारखरिया - (लेखक-ग्वालियर के वरिष्ठ पत्रकार है।) 

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