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लोकजतन - बीस साल का सफर

लोकजतन का आगमन तब हुआ था जब लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने वाला मीडिया इनके भांड़ और भौंपू की भूमिका में आ गया था। समाचार समाप्त होने लगे। सूचनायें सिकुंडऩे लगी। उपभोक्तावादी संस्कृति को पाला पोसा जाने लगा। जन और जनतंत्र मीडिया से गायब होने लगा।

लोकजतन का बीस साल का सफर सिर्फ एक समाचार की निरंतरता का सफर नहीं है। यह सूचनाओं के सिकुडऩे, संचार माध्यमों पर साम्राज्यवादी हमलों, कारपोरेट घरानों के मीडिया को मुठ्ठी में कर लेने, फिर मीडिया का ही कारपोरेट बन जाने और एक खास विचार वाली पार्टी के सत्ता में आ जाने के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमलों के दौर में सच का साहस के साथ कहने का सफर है। 

लोकजतन ने उस ढिंढोरे को चुनौती देने का नाम है, जब लुटेरों और उनके जूूठन पर पलने वाले बुद्विजीवियों और कलमघिसुओं ने फतवे जारी किए थे कि यह युग टीना का युग है। टीना- देयर इज नो आल्टरनेटिव। उन्होने शोषण, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, भूख, अशिक्षा और अन्याय को विकल्पहीन का युग घोषित कर दिया है। मतलब यह लुटेरों का दौर है। लूटना उनका अधिकार है और हम लुटने के लिए अभिशप्त हैं। यह वो दौर है जब जंगल के कानून को सभ्य समाज पर लाकर थोप दिया गया। सर्वाईवल इज दी फिटेस्ट। केवल वही जिंदा रहेगा,जो जिंदा रह सकता है। जंगल में शेर और समाज में कारपोरेट घराने और पूंजीपति। 

लोकजतन उस आईने का नाम है, जब अंतर्राष्ट्रीय पूंजी, कारपोरेट घराने और उसका भौंपू मीडिया सारी दुनियां को यह समझाने में लगा था कि अब सारी विचारधारायें गौण हो गई हैं। सारे वाद खामोश हो गए हैं। कहा गया कि यह भूमंडलीकरण का दौर है। दुनियां एक गांव में तबदील हो गई है। दुनियां का नजदीक  आना अच्छी बात है। विश्व भाईचारे से किसे इंकार हो सकता है। मगर वो दुनियां को दोस्ती, शांति और विकास के लिए नजदीक कहां ला रहे थे? वे तो अपनी पूंजी को निरंकुश करने, लूट की छूट देने, सरहदों को स्थिल कर पूंजी को बेरोकटोक आने जाने की व्यवस्था कर रहे थे। अपने मुनाफे की सुरक्षा के लिए वे तीसरी दुनियां के देशों की संप्रभुता को सिकोड़ रहे थे। वे अपनी पूंजी के पांव पसारने के लिए तीसरी दुनियां की प्राकृतिक संपदा को बेरहमी से नष्ट करने की व्यवस्था को सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था घोषित कर रहे थे। वे जो भी कर रहे थे। अपने तिजोरियां भरने के लिए कर रहे थे। उनके मुनाफे के आगे मानवता मृत्य प्राय मान ली गई। लोकजतन ने आईने की तरह समाज को सच समझाने की कोशिश की।

लोकजतन का आगमन तब हुआ था जब लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने वाला मीडिया इनके भांड़ और भौंपू की भूमिका में आ गया था। समाचार समाप्त होने लगे। सूचनायें सिकुंडऩे लगी। उपभोक्तावादी संस्कृति को पाला पोसा जाने लगा। जन और जनतंत्र मीडिया से गायब होने लगा। अखबारों के पन्नों पर विज्ञापन पसरने लगे। पेड न्यूज परमानेंट काँलम की तरह पक्की होने लगी। अब आप ही कल्पना कर लीजिए कि यदि विज्ञापन होंगे। पेड न्यूज होगी तो फिर समाचार के लिए कहां स्थान होगा? जनता और जनतंत्र के कोई जगह कैसे बचेगी?
और विज्ञापन। विज्ञापन सिर्फ अपने उत्पाद का प्रचार करने के लिए नहीं दिए जाते हैं। वे समाचारों को नियंत्रित करने के लिए भी दिए जाते हैं। विज्ञापनदाता के खिलाफ कोई समाचार नहीं होगा। विज्ञापनदाता को आहत करने वाला समाचार नहीं होना चाहिए। सिर्फ उस सरकार की चर्चा हेागी जो विज्ञापनदाता को कारोबार को फलने फूलने में मदद करें। उन्हीं नीतियों की चर्चा होगी, जो विज्ञापनदाता कंपनी के हितों को साधने वाली हों। उन्हीं राजनीतिक पार्टियों और राजनीति की चर्चा होगी, जो विज्ञापनदाता कंपनी के टुकड़ों पर पलने वाली हों।  लुब्बोलबाब यह है कि समाचार विज्ञापनदाता की सहमति से चलेगा। उसके हितों को संरक्षण देने के बाद ही चलेगा। 

लोकतंत्र के लिए यह दौर विडंबनाओं का दौर रहा है। हमने इस दौर में शब्दों को अपने अर्थ खोते हुए देखा है। शब्दों का अर्थहीन हो जाना, शब्दों का अपने अर्थों का बदल देना सबसे भयापनक त्रासदी होता है। पिछले बीस सालों में हमने ऐसे ही शब्द देखें हैं। विकास। हमारे दौर में यह शब्द सबसे अधिक पीड़ा देना वाला शब्द बना। हमें समझाया गया कि राजनीति को विकास में आड़े नहीं आना चाहिए। मतलब यह है कि सरकारों के आने और जाने से उनकी नीतियों पर कोई असर नहीं होना चाहिए। नव उदारीकरण की नीतियों को निर्बाध रूप से जारी रहना चाहिए। जो राजनीति मजदूर की बात करे। किसान की बात करे। भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी , अशिक्षा और बीमारी की बात करने वाली राजनीति को विकास विरोधी करार दिया जाने लगा। विकास के अपने पैमाने निर्धारित हुए। नीतियों की सफलता के पैमाने बदले। पहले पन्ने का सुर्खियों में देश में खरबपतियों की बढ़ती संख्या, देश में उछलता कूदता शेयरबाजार बनने लगी। अंबानियों, अडानियों की दौलत के अंबार को देश की विकास की संज्ञा दी गई। आत्महत्या करते किसान, रोजगार से हाथ धोते मजदूर, वेतन जाम,घटते दाम, बढ़ती महंगाई, भुुखमरी और बीमारी से होती मौतों को खबरों से बाहर कर दिया गया। संचार माध्यमों के विस्तार और सूचनाओं को सीमित कर देने की साजिशें इस दौर में हुई। 

यही वह दौर था, जब पूंजी ने सबको नियंत्रित किया। वैसे यह नहली बार नहीं था। मगर इतने नंगे और बेशर्म रूप में इसे पहली बार देखा गया। राजनीतिक पार्टियां नीतियां बनाने के लिए, बल्कि कारपोरेट घरानों की बनी बनाई नीतियों को अमल में लाने तक सीमित रह गई। कारपोरेट घराने राजनीति को संचालित करने लगे। इस दौर में रिश्वतें एक लायसेंस जुटाने के लिए नहीं, बल्कि पूरी नीति अपने हित में बनाने और उसकों सुनिश्चित करने के लिए अपनी पसंद का मंत्री बनाने और अब तो प्रधानमंत्री बनाने के लिए दी जाने लगी। 

नव उदारीकरण के इस दौर ने लोकतंत्र को ही मजाक बना डाला। हमारा बजट विश्व बैंक के निर्देशों पर बनने लगा। कारपोरेट घरानों द्धारा तैयार मसौदे ही संसद में बिना चर्चा पारित किए जाने लगे। और फिर अब तो नया दौर है। सत्ताधारी पार्टी का फरमान है कि वही सोचा जाये जो वो चहती है। वही लिखा जाये जो सत्ताधारी पार्टी को पसंद है। वही सच है जो सत्ता को महिमामंडित करे। सच का सपना देखने वाली आंख उन्हें पसंद नहीं। सच को जुबान पर लाने वाली जुबान उन्हें पसंद नहीं। गौरी लंकेश, कलबुर्गी, गोबिंद पंसारे और नरेन्द्र दाबोलकर का खामोश किया जाना हमें इसी दौर में देखा है। यह दोहरा देना लाजिमी है कि यह बीस साल का दौर आपातकाल का दौर नहीं है। अखबारों पर किसी पर की घोषित सैंसरशिप नहीं है। मगर अखबारों में वहीं छपेगा, चैनलों पर वही चलेगा जो कारपोरेट घरानो और सत्ताधीशों के हितों के अनुरूप हो। लोकतंत्र का चौथा खंभा लहूलुहान है। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि यह दौर आपातकाल से कहीं ज्यादा दमघोटू दौर है। 

इस दौर में लोकजतन ने कहा था कि हम हैं। इसलिए बीस सालों का लोकजतन का सफर सिर्फ अपनी समस्याओं से जूझने, आर्थिक संसाधनोंं के अभाव से गुजरने वाला फाकाकशी का सफर नही है। लोकजतन का यह सफर एक चश्मदीद गवाह का सफर है। जो वक्त की अदालत में कटघरे में खड़ा है। मगर एक अपराधी की तरह नहीं। एक सच्चे और साहसी चश्मदीद गवाह की तरह।  

लोकजतन ने उन लोगों की आवाज बनने की कोशिश की है, जिनकी कोई आवाज नहीं। पिछले बीस सालों में लोकजतन के प्रकाशन में, संपादन में खामियां रहीं होंगी। मगर बेईमानियां नहीं। हमने जनता की आवाज को, उसके दुख दर्दों को, प्रदेश के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक प्रश्रों को चर्चा में लाने का पूरा प्रयास किया है। 

 आर्थिक अभावों और संसाधनों की कमी हमारे संकल्पों को कभी कमजोर नहीं कर पायी। जन सरोकारों के प्रति हमारी प्रतिबद्वता को हमारे अभावों ने मजबूती दी है। जनता के संघर्षों को अपने कंधों पर बिठाकर उन्हें फिर जनता तक पहुंचाने में हमें गर्व महसूस हुआ है। इसलिए हम कह सकतें है कि हम कमजोर नहीं। कमजोर वो होता है जो सच कहने का साहस न कर सके। लोकजतन ने उन प्रश्रों पर भी मुखरता से आवाज उठाई है, जिन मुद्दों पर खुद को मुख्य मीडिया होने का दावा करने वाला मीडिया मौन था। 
क्या किसी दूसरे अखबार ने एक मुख्यमंत्री की पत्नि द्धारा नोट गिनने की मशीन की खबर को छापा? क्या किसी दूसरे अखबार ने हमारे साम्प्रदायिक सदभाव को तोडऩे की साजिशों को बेनकाब किया? 

इसलिए यह अखबार प्रदेश की जनता का अखबार है। यह आदिवासियों की आवाज है। लोकजतन प्रदेश के दलितों का दर्द है। लोकजतन मजदूर को मजबूर नहीं करता, उनके संघर्षों को मजबूत करता है। यह अखबार प्रदेश के युवकों, छात्रों, महिलाओं, बुद्विजीवियों का चिंताओं का निचोड़ है। 
लोकजतन को अपने किए पर गर्व है, मगर गुमान नहीं। अभी बहुत कुछ करने की छटपटाहट लोकजतन के मन में है। मगर यह जतन अधूरे रहेंगे, जब तक यह जतन लोकजतन न होंगे। लोकजतन अभी उनकी आवाज बनना चाहता है, जिनकी कोई आवाज नहीं। लोकजतन उन हाथों में पहुंचना चाहता है, जिनका यह अखबार है। लोकजतन के इस अधूरे सफर को पूरा करने के लिए आईए, इस कारवां का हिस्सा बनें। इसमें संपादक मंडल, प्रबंध समिति, हमारे एजेंटोंऔर पाठकों को मिलकर प्रयास करना होगा। आईए लोकजतन परिवार में कम से कम दो सदस्यों को जोड़े। ताकि जनता के अखबार को जनता तक पहुंचने के सफर में दो कदम आगे बढ़ा जा सके।  
लेखक-लोकजतन के पूर्व संपादक है।


About Author

जसविंदर सिंह

राज्य सचिव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) मध्यप्रदेश

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